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एक दिन एक महिला भारत-पाकिस्तान सीमा पर आख़िरी सैन्य छावनी फ़िरोज़पुर के मॉल पर टहल रही थीं. उनकी नज़र 4 ग्रेनेडियर के क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद के पोस्टर पर पड़ी.
अब्दुल हमीद को 1965 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई में खेमकरन सेक्टर में पाकिस्तान के कई पैटन टैंक नष्ट करने के लिए परमवीर चक्र मिला था. आश्चर्यजनक बात ये थी कि भारत के बहुत से लोगों को अब्दुल हमीद के कारनामों के बारे में कोई अंदाज़ा ही नहीं था.
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उस महिला का नाम है रचना बिष्ट रावत. उन्होंने मन ही मन कहा- ''अब्दुल हमीद, मैं एक दिन तुम्हारी कहानी सारी दुनिया को सुनाउंगी'' और इस तरह एक किताब का जन्म हुआ 'द ब्रेव परमवीर स्टोरीज़'.
अब्दुल हमीद पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहुत ही साधारण परिवार से आते थे लेकिन इसके बावजूद जब उन्हें मौक़ा मिला उन्होंने वीरता और साहस की असाधारण मिसाल क़ायम की.
अब्दुल हमीद की पत्नी रसूलन बीबी 85 वर्ष की हैं लेकिन अब वो सुन नहीं सकतीं हैं. रेहान फ़ज़ल उनसे, उनके दूसरे परिवारजनों और रचना बिष्ट रावत से बात करने के बाद अब्दुल हमीद के व्यक्तित्व और जीवट पर नज़र डाल रहे हैं इस हफ़्ते की विवेचना में
1965 का युद्ध शुरू होने के आसार बन रहे थे. कंपनी क्वार्टर मास्टर अब्दुल हमीद गाज़ीपुर ज़िले के अपने गाँव धामूपुर आए हुए थे. अचानक उन्हें वापस ड्यूटी पर आने का आदेश मिला.
उनकी पत्नी रसूलन बीबी ने उन्हें कुछ दिन और रोकने की कोशिश की लेकिन हमीद मुस्कराते हुए बोले- देश के लिए उन्हें जाना ही होगा.
अब्दुल हमीद के बेटे जुनैद आलम बताते हैं कि जब वो अपने बिस्तरबंद को बांधने की कोशिश कर रहे थे, तभी उनकी रस्सी टूट गई और सारा सामान ज़मीन पर फैल गया.
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उसमें रसूलन बीबी का लाया हुआ मफ़लर भी था जो वो उनके लिए एक मेले से लाईं थीं. रसूलन ने कहा कि ये अपशगुन है. इसलिए वो कम से कम उस दिन यात्रा न करें, लेकिन हमीद ने उनकी एक नहीं सुनी.
'द ब्रेव परमवीर स्टोरीज़' की लेखिका रचना बिष्ट रावत कहती हैं, ''इतना ही नहीं जब वो स्टेशन जा रहे थे तो उनकी साइकिल की चेन टूट गई और उनके साथ जा रहे उनके दोस्त ने भी उन्हें नहीं जाने की सलाह दी. लेकिन हमीद ने उनकी भी बात नहीं सुनी.''
जब वो स्टेशन पहुंचे, उनकी ट्रेन भी छूट गई थी. उन्होंने अपने साथ गए सभी लोगों को वापस घर भेजा और देर रात जाने वाली ट्रेन से पंजाब के लिए रवाना हुए. ये उनकी और उनके परिवार वालों और दोस्तों के बीच आख़िरी मुलाक़ात थी.
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8 सितंबर 1965, समय सुबह के 9 बजे. जगह चीमा गाँव का बाहरी इलाक़ा. गन्ने के खेतों के बीच अब्दुल हमीद जीप में ड्राइवर की बग़ल वाली सीट पर बैठे हुए थे. अचानक उन्हें दूर आते टैंकों की आवाज़ सुनाई दी.
थोड़ी देर में उन्हें वो टैंक दिखाई भी देने लगे. उन्होंने टैकों के अपनी रिकॉयलेस गन की रेंज में आने का इंतज़ार किया, गन्ने की फ़सल का कवर लिया और जैसे ही टैंक उनकी आरसीएल की रेंज में आए, फ़ायर कर दिया.
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पैटन टैंक धू-धू कर जलने लगा और उसमें सवार पाकिस्तानी सैनिक उसे छोड़कर पीछे की ओर भागे. अब्दुल हमीद के पौत्र जमील आलम बताते हैं, ''मैं अपनी दादी के साथ सीमा पर उस जगह गया जहाँ मेरे दादा की मज़ार है.''
उनकी रेजिमेंट वहाँ हर साल उनके शहादत दिवस पर समारोह आयोजित करती है. वहाँ उनकी एक ऐसे सैनिक से मुलाक़ात हुई थी जिसका लड़ाई में हाथ कट गया था. उसने उन्हें बताया था कि अब्दुल हमीद ने उस दिन एक के बाद एक चार पैटन टैंक धराशाई किए थे.
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इस लड़ाई को 'असल उत्तर' की लड़ाई कहा जाता है. रचना बिष्ट रावत कहतीं हैं कि ये जवाब था पाकिस्तान को उनके टैंक आक्रमण का. उनके परमवीर चक्र के आधिकारिक साइटेशन में बताया गया था कि उन्होंने चार पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट किया था.
हरबख़्श सिंह भी अपनी किताब 'वॉर डिस्पेचेज़' में लिखते हैं कि हमीद ने चार टैंकों को अपना निशाना बनाया था लेकिन मेजर जनरल इयान कारडोज़ो ने अपनी किताब में लिखा है कि हमीद को परमवीर चक्र देने की सिफ़ारिश भेजे जाने के बाद अगले दिन उन्होंने तीन और पाकिस्तानी टैंक नष्ट किए.
जब वो एक और टैंक को अपना निशाना बना रहे थे, तभी एक पाकिस्तानी टैंक की नज़र में आ गए. दोनों ने एक-दूसरे पर एक साथ फ़ायर किया. वो टैंक भी नष्ट हुआ और अब्दुल हमीद की जीप के भी परखच्चे उड़ गए.
इस लड़ाई में पाकिस्तान की ओर से 300 पैटन और चेफ़ीज़ टैंकों ने भाग लिया था जबकि भारत की और से 140 सेंचूरियन और शर्मन टैंक मैदान में थे.
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अब्दुल हमीद का पुश्तैनी पेशा दर्ज़ी का था लेकिन इस काम में उनका मन नहीं लगता था.
उनके बेटे जुनैद आलम कहते हैं कि वो शुरू से ही सेना में भर्ती होना चाहते थे. जब गाज़ीपुर में सेना भर्ती का कैंप लगा तो हमीद भी सेना में भर्ती हो गए.
उन्हें 4 ग्रेनेडियर के जबलपुर केंद्र भेजा गया. साल 1962 में चीन के ख़िलाफ़ लड़ाई में भी उन्होंने भाग लिया. उनके पौत्र जमील आलम बताते हैं कि अब्दुल हमीद का क़द छह फ़ुट तीन इंच था.
उनका निशाना भी ग़ज़ब का था. शुरू से ही उन्हें कुश्ती लड़ने का शौक़ था. वो न सिर्फ़ कुश्ती लड़ते थे बल्कि बच्चों को कुश्ती सिखाते भी थे.
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अब्दुल हमीद की मौत और भारत का सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार पाने की ख़बर उनके परिवार को रेडियो से मिली. उनकी पत्नी रसूलन बीबी इस समय 85 साल की है.
वो अब ठीक से सुन नहीं सकतीं. लेकिन वो दिन अभी तक नहीं भूली हैं जब राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अब्दुल हमीद का जीता हुआ परमवीर चक्र उनके हाथों में दिया था.
रसूलन कहती हैं, ''मुझे बहुत दुख हुआ लेकिन ख़ुशी भी हुई, हमारा आदमी इतना नाम करके इस दुनिया से गया. दुनिया में बहुत से लोग मरते हैं, लेकिन उनका नाम नहीं होता लेकिन हमारे आदमी ने शहीद होकर न सिर्फ़ अपना बल्कि हमारा नाम भी दुनिया में फैला दिया.''
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